कांग्रेस पार्टी ने इस देश पर कई साल राज किया | सालों तक बिना किसी बड़े विरोध के इनकी सरकारें बनती रहीं | वोटरों को अपनी ओर आकर्षित करने वाले कई बड़े नामी चेहरे पार्टी के नेता बने रहे और पार्टी को लगातार जीत दिलाने में बड़ी भूमिका निभाते रहे | ज्यादातर राज्यों में कांग्रेस के पास गाँधी परिवार के अलावा भी कुछ ऐसे चेहरे रहते थे जिनका चुनावी जंग में महत्वपूर्ण योगदान रहता था | सोनिया गाँधी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने और कांग्रेस के कुछ बड़े और नामी जिताऊ नेताओं की अचानक हुई मौतों के बाद कांग्रेस का नेतृत्व कुल मिलाकर पूरी तरह से गाँधी परिवार के आसपास घूमने लगा | हालाँकि इन अचानक हुई मौतों पर और उनकी जांचों पर भी कुछ लोगों द्वारा सवाल उठाये गए और कई तरह की कहानियां भी चलीं परन्तु अब तक कुछ भी साबित नहीं हुआ इसलिए उनके बारे में मैं यहाँ कुछ लिखना नहीं चाहता | बचे हुए जो कांग्रेसी नेता थे उन्होंने भी नए नेता तैयार करने की जगह अपना पूरा ध्यान गाँधी परिवार के महिमा मंडन में ही लगाया | सोनिया गाँधी शायद अपने बेटे को स्थापित करने की मंशा में किसी और नेता को इतना स्थान नहीं दे पायीं कि वो जनता के बीच एक सीमा से ज्यादा अपनी अच्छी और वोट जिताऊ छवि बना पाए | मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बनाये गए परन्तु शासन और सरकार में गाँधी परिवार के हस्तक्षेप और मनमोहन सिंह की चुप्पी की वजह से मनमोहन सिंह भी वो सम्मान नहीं प्राप्त कर पाये जो कि एक प्रधानमंत्री को मिलना चाहिए था और न ही वो पार्टी के लिए स्टार प्रचारक या जिताऊ नेता का तमगा पा सके | हर जीत को गाँधी परिवार की जीत और हर हार को पार्टी की गलती बताकर अन्य सभी नेताओं का भी बड़ा नाम प्राप्त करने अवसर खत्म कर दिया गया | कुल मिलाकर जनता को यही सन्देश दिया गया कि कांग्रेस का मतलब गाँधी परिवार है और गाँधी परिवार के अलावा कांग्रेस में कोई भी अन्य चेहरा नहीं है | सोनिया गाँधी के गिरते स्वस्थ्य और राहुल गाँधी की अपरिपक्वता की वजह से यह कांग्रेसी नेतृत्व का हवाई गुब्बारा भी कुछ ही समय में फट गया | राहुल गाँधी जनता के बीच आज तक खुद को एक योग्य नेता के रूप में स्थापित नहीं कर पाये और निकट भविष्य में ऐसी कोई सम्भावना भी नजर नहीं आ रही | २०१४ के लोकसभा चुनावों का इकतरफा परिणाम आने का यह भी एक मुख्य कारण रहा कि देश की जनता राहुल गाँधी को प्रधानमंत्री के रूप में स्वीकारने के लिए तैयार नहीं थी |
आज भी जनता के बीच हर चुनाव में एक यह चर्चा जरूर होती है कि यदि नरेंद्र मोदी और राहुल गाँधी में से किसी एक को ही प्रधानमंत्री बनना है तो वो नरेंद्र मोदी का ही साथ देगी क्योंकि वो राहुल गाँधी और नरेंद्र मोदी की नेतृत्व क्षमता और योग्यता में जमीन आसमान जैसा फर्क नजर आता है | मुझे नहीं लगता कि जब तक लोकसभा चुनाव नरेंद्र मोदी बनाम राहुल गाँधी रहे तब तक लोकसभा के चुनावी परिणामों में कोई फर्क आने वाला है | अब २०१९ में कांग्रेस के लिए बस यही बड़ी जीत होगी कि वो किसी तरह से भाजपा को अपनी दम पर सरकार बनाने से रोक ले यानी कि भाजपा को २७२ का आंकड़ा न पार करने से | भाजपा को २०१९ में हराने की क्षमता तो फिलहाल कांग्रेस में नहीं दिखती | अब यदि भाजपा ही कोई ऐसी बड़ी भारी भूल कर दे कि देश की जनता उसके खिलाफ हो जाये तो बात अलग है |
गुजरात नरेंद्र मोदी जी का गढ़ है | गुजरात की जनता के बीच वो आज भी सबसे बड़े और लोकप्रिय नेता हैं | यह सच है कि अब मोदी जी अब वहां के मुख्यमंत्री नहीं हैं | मोदी जी के गुजरात से बाहर जाने के बाद भाजपा भी थोड़ी लड़खड़ाई थी, मुख्यमंत्री भी बदले गए और कोशिश की गयी कि विधानसभा चुनावों के पहले पार्टी पूरी तरह से संभल जाए और अपनी पहले वाली शक्ति के साथ चुनाव लड़े | फिलहाल भाजपा की गुजरात यूनिट पूरी तरह से संगठित दिख रही है और एक होकर पूरी शक्ति के साथ चुनाव लड़ रही है, जो कुछ अतिरिक्त मदद की आवश्यकता है भी वो स्टार प्रचारक के रूप में स्वयं मोदी जी, अमित शाह, योगी आदित्यनाथ एवं अन्य कई बड़े नामी लोकप्रिय नेता पूरी कर देंगे | परन्तु कांग्रेस के पास इस समय गुजरात यूनिट एवं शीर्ष नेतृत्व दोनों में ही अकाल जैसी स्थिति है | स्टार प्रचारक जो भी हैं बस नाम के हैं क्योंकि फिलहाल तो कोई भी ऐसा कांग्रेसी नेता नहीं दिखता जिसकी छवि ऐसी हो कि जनता उस से आकर्षित होकर कांग्रेस को वोट दे दे | शीर्ष स्तर पर कोई नया नेता पैदा होने नहीं दिया गया ताकि राहुल गाँधी को निर्विरोध शीर्ष नेतृत्व दिया जा सके और गुजरात यूनिट वैसे भी कई सालों से सत्ता से बाहर रहने की वजह से खोखली हो गयी है |
जाहिर सी बात थी कि कांग्रेस को कुछ ऐसे कंधे चाहिए थे जिनके दम पर वो गुजरात चुनाव जीत सके परन्तु कांग्रेस के नेतृत्व के दिवालियापन का यह बड़ा उदाहरण है कि इतनी बड़ी राष्ट्रीय पार्टी को हार्दिक, अल्पेश और जिग्नेश जैसी वैशाखियों के आगे नतमस्तक होना पड़ा, यहाँ तक कि ऐसे हालात आ गए कि खुद राहुल गाँधी इनसे मिलने के लिए कतार में खड़े हुए से नजर आ रहे हैं | ये तीनों नवसिखियों को मीडिया और भाजपा विरोधी राजनैतिक दलों द्वारा एक सोची समझी रणनीति की वजह से चर्चित बनाया गया था परन्तु उनका वास्तविक जनाधार क्या है इसका अंदाजा सभी को है | एक राष्ट्रीय पार्टी जिसने कई सालों तक इस देश पर राज किया आज उसको यह दिन देखने पड़ रहे हैं कि उनके सभी शीर्ष नेता इन तीन वैशाखियों के आगे पीछे घूम रहे हैं और वो भी सिर्फ चुनाव में अपनी इज्जत बचाने के लिए क्योंकि चुनाव के नतीजे क्या होंगे यह सभी को पता है | यह कांग्रेस के लिए एक गंभीर आत्मचिंतन का समय है | कांग्रेस को अपनी इस स्थिति के कारणों पर चर्चा करनी चाहिए और अपने नेतृत्व और रणनीति में अतिआवश्यक बदलाव लाने होंगे यदि वो इस देश की राजनीति से आने वाले समय में पूरी तरह से गायब नहीं होना चाहती | भाजपा एवं अन्य राजनैतिक दलों की मौजूदगी एवं दलबदलुओं को मिलने वाले मान सम्मान का नतीजा यह होगा कि यदि कांग्रेस ने यह अतिआवश्यक बदलाव नहीं लाये तो जो इनके कुछ गिने चुने बचे नेता हैं भी वो भी किसी न किसी दूसरी पार्टी में चले जायेंगे और कांग्रेस की सम्मानजनक राजनैतिक वापसी असंभव हो जाएगी |